बस्तर में भी गूंजा था स्वतंत्रता के गीत

शकुंतला तरार
एकता नगर,गुढ़ियारी रायपुर



आज देश स्वतंत्रता के अठहत्तरसाल पूरे करके उनहत्तरवें वर्ष में प्रवेश करके आज सालगिरह मना रहा है | किन्तु क्या इस स्वतंत्रता के पीछे जिन महान देशभक्तों का संघर्ष रहा है उन्हें यूँ ही भुला दिया जाए ? नहीं शायद इसी बात को लेकर हमारा नेतृत्व आज जागृत है कि हम उन वीरों का स्मरण करें, जिन्होंने हमें यह स्वतंत्रता और सुखमय जीवन देने के लिए संघर्ष किया और अपने प्राणों का उत्सर्ग किया | स्वतंत्रता के संघर्ष में जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपना योगदान दिया उनका पुण्य स्मरण करने का वर्ष है यह | देश जब स्वतंत्रता पाने के लिए संघर्ष कर रहा था तब उसकी आँच बस्तर में भी पहुँच चुकी थी | यहाँ लोग पहले से ही मराठों के आतंक से त्रस्त थे, उस पर अंग्रेजी शासन का आना और क्षेत्रीय राजा-महाराजाओं, जमींदारों पर नए-नए कानून लागू कर उनका शोषण किया जाना, अंग्रेजों को गाँव के ग्रामीणों से, उनकी तकलीफों से, कोई सरोकार नहीं था | यदि था तो केवल उन पर अनावश्यक कर का बोझ लादना या फिर गुलामी के बोझ तले अपनी आज्ञा का अनुसरण करवाना, जिससे गरीब जनता आहत होने लगी उनके जुल्मों से दु:खी और भयभीत होने लगी, तब ऐसे समय में इस स्वतंत्रता के संघर्ष में बस्तर भी प्रभावित हुए बिना न रह सका था |
बस्तर में इसके पूर्व भी आग सुलग रही थी स्वतन्त्र होने के लिए, आतताईयों से छुटकारा पाने के लिए क्योंकि अंग्रेजों से पूर्व वैसे भी मराठा शासकों के अत्याचारों से बस्तर का क्षेत्र प्रभावित होकर त्रस्त था ही उस पर अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों ने आग में घी का काम किया और तब अंग्रेजों के दमनकारी नीतियों के खिलाफ आन्दोलन की शुरुवात 1825 में परलकोट के जमींदार गेंदसिंह ने किया था अपने साथियों के साथ मिलकर | यह आन्दोलन लगभग पाँच से छ: सालों तक चला और आखिर अंग्रेजों से कठिन संघर्ष करते हुए वे अंग्रेजों की चाल के आगे असफल हो गए और गिरफ्तार कर लिए गए और 20 जनवरी 1825 में परलकोट स्थित महल के सामने उन्हें फाँसी दे दी गई थी | आज गेंदसिंह को शहीद गेंदसिंह के नाम से जाना जाता है |
यह आग अभी थमी नहीं थी तब से लेकर भीतर ही भीतर सुलग रही थी | बस्तर के राजा-महाराजाओं को अंग्रेजों की कुटिल चाल ज़रा भी नहीं भाती थी | यह वह दौर था जब राज घराने की प्रत्येक गतिविधियों पर अंग्रेजों की नजर रहती थी फिर भी रानी ने अंग्रेजों के विरूद्ध संगठित हो रहे विद्रोहियों का न केवल साथ दिया अपितु अपने ओजस्वी भाषणों से विद्रोहियों में जोश और साहस का संचार करती रही थीं।
रानी सुवर्ण कुमारी ने ही सर्वप्रथम अंतागढ़ के तोड़ोकी में आम सभा को संबोधित करते हुए मुरिया राज की स्थापना का शंखनाद किया, जिससे उपस्थित जन समूह में आजादी के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का स्वर मुखरित हुआ। लाल कालेन्द्र के साथ मिलकर रानी ने प्रतीकों का विस्तार किया। रूद्रप्रताप देव 1903 में बालिग हो चुके थे किंतु टालमटोल करते हुए ब्रिटिश प्रशासन ने उन्हें 1908 में विधिवत राजा घोषित किया। राजा रूद्रप्रताप देव अपनी सौतेली माँ यानि महारानी सुवर्ण कुमारी अर्थात सुबरन कुँवर और चाचा लाल कालेन्द्र से बहुत डरते थे। इस बात का फायदा उठाकर अंग्रेज फूट डालने में सफल हुए किंतु सुवर्ण कुमारी और लाल कालेन्द्र सिंह उनकी इस चाल को समझ गए थे।
उनकी यह लड़ाई बस्तर के हित के लिए थी, बस्तर की जनता के लिए, बस्तर के लोगों के आत्म सम्मान की रक्षा के लिए, बेटियों को शोषण से बचाने के लिए, जनता को नर संहार को बचाने के लिए और अंग्रेज मुक्त बस्तर करने के लिए थी। वे जानती थीं सामने ब्रिटिश सेना गोला-बारूद, बंदूक से तैयार है और उनके राज्य के वीरों के पास मात्र तीर, कमान और भाला ही अस्त्र है फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी एक महिला होकर भी अदम्य साहस का परिचय देते हुए डटी रहीं। उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी, उनके दबाव में सत्ता सुख की चाह त्याग कर शोषित, पीड़ित मानवता का साथ दिया |
महारानी सुवर्ण कुमारी और चाचा लाल कालेन्द्र एक अच्छे नेतृत्व की तलाश में थे और उनकी तलाश दक्षिण बस्तर के युवा जुझारू देशभक्त गुंडाधुर के रूप में पूरी हुई | अंतागढ़ के ग्राम तोड़ोकी में सन 1910 जब वीर गुंडाधुर ने अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के युद्ध का शंखनाद किया था | गुंडाधुर के नेतृत्व में जो लड़ाई लड़ी गई, उसे भूमकाल के नाम से जाना जाता है शायद इसलिए इनके गीतों में इस तरह के स्वतंत्रता के भावों का समावेश हुआ है |10 फरवरी को आज भी गुंडाधुर के नाम से भूमकाल दिवस के रूप में मनाया जाता है |
गुंडाधुर के साहस की कहानी तो इनके लोक गीतों में होते ही हैं किन्तु जब भूमकाल के समय के गीतों को रात के सन्नाटे में ये गातें हैं तो लोगों के बदन में सिहरन सी दौड़ जाती है | इनके द्वारा उस समय के गाए गीतों की बानगी यहाँ प्रस्तुत है जिसे युवतियों द्वारा गाया गया है | जिस तरह हमने वन्दे मातरम और अन्य आजादी के गीतों के माध्यम से देश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उसी तरह बस्तर में भी गूंजे थे स्वतंत्रता के गीत इसके लिए घोटुल गुड़ी सबसे अच्छा माध्यम था | जो भी कार्य करना हो उसकी परिणिति के लिए घोटुल गुड़ी के सदस्य सलाह मशवरा करके नियम बनाकर सभी कुछ तय करते थे, उसी घोटुल गुड़ी से निकलकर कुछ गीत गाए गए जो हमें आज पढ़ने को मिलते हैं | मैं युवतियों द्वारा गाए गए कुछ हल्बी गीतों को हिंदी अनुवाद के रूप में प्रस्तुत कर रही हूँ इनके गीतों में एक भय तो व्याप्त है उन्होंने इस गीत में भगवान् श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण को भी अपने गीतों का पात्र बनाया है —
हल्बी गीत में वे कहती हैं कि—-
दीदी री दीदी, दुलोसा दीदी, बेलोसा दीदी –
रानी री रानी बेलोसा रानी, दुलोसा देवानिन
दादा(भाई) लोगों ने बताया हमें कि इस जगह पर
माता सीता कभी आईं थी यहाँ
राम आए थे और उनके भाई
लक्षमण भी आए थे
उनके साथ हमारे माता पिता
माता पिता माता पिता उनके माता पिता
बहुत सारे लोगों के साथ,
उन लोगों का मेल मिलाप था
अभी भानुप्रतापपुर अंतागढ़ की तरफ से
नारायण युद्ध के लिए आए हैं खादी का फेंटा
गांधी टोपी पहनकर लोग
वे ही क्या हमारा घोटुल भी
आकर हमें कुछ बताते हैं दंड देंगे क्या
हमें भय लग रहा है दीदी बेलोसा रानी
हमें भय लग रहा है दुलोसा देवानिन ||
हल्बी से अनुवाद
अर्थात इन गीतों के माध्यम से वे कहती हैं कि हमें हमारे बड़े भाईयों ने बताया है कि इस जगह पर कभी माता सीता आईं थी उनके साथ भगवान् राम और उनके भाई लक्षमण भी आए थे | उनके साथ हमारे लोगों का हमारे माता पिता का मेल जोल था, किन्तु अभी भानुप्रतापपुर, अंतागढ़ की तरफ से नारायण युद्ध के लिए आए हैं उनके साथ खादी का फेंटा और सर पर गाँधी टोपी पहनकर लोग आए हैं और वे ही क्यों हमारा घोटुल भी साथ है हमें आकर कुछ बताते हैं अर्थात जानकारी प्रदान करते हैं | दंड देने की बातें करते हैं | हमें भय लग रहा है दीदी बेलोसा रानी और हमें भय लग रहा है दुलोसा देवानिन | हम क्या करें ?
यहाँ वे जानती हैं कि उनका घोटुल उनके साथ है किन्तु दंड देने की बात सुनकर वे भी भयभीत हैं | इस तरह के गीत गाकर वे लोग अपने मन को सांत्वना प्रदान करते थे | गीत के बोल जिसमें कहा गया की भानुप्रतापपुर,अंतागढ़ से नारायण युद्ध के लिए खादी का फेंटा और गाँधी टोपी पहनकर लोग आए हैं तो क्या गाँधी के समय में गुंडाधुर हुए थे | शायद नहीं किन्तु यह सत्य है कि अंतागढ़ के ग्राम तोड़ोकी से ही रानीसुवर्ण कुंवर और लाल कालेन्द्र सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का शंखनाद किया था और उस युद्ध का नेतृत्व का भार गुंडाधुर को सौंपा था जिसने अंग्रेजी शासन की नींव हिलाकर रख दी थी बस्तर में | घोटुल गुड़ी में तब स्वतंत्रता के गीत तैयार किए जाते थे, जिनमें युवतियों द्वारा गाए गए कुछ गीत हैं:-
पहले गीत के जवाब में ही यह दूसरा गीत प्रतिउत्तर के रूप में आया है ——
हमने भी देखा है चैका, जिलमिली,तिलोका, मलको
कौन लोग आए हैं , किसलिए आए हैं
ये लोग कोंडागाँव में भी आए हैं
और जगदलपुर, सुकमा, दंतावाड़ा में पहुँच गए हैं
हमें भी भय लग रहा है, क्या
ये लोग किसलिए आए हैं ||
हल्बी से अनुवाद
अर्थात –दूसरी सखियाँ संबोधित कर रही हैं अपनी अन्य सखियों को यह कि, हमने भी देखा है चैका, जिलमिली, तिलोका, मलको कि कौन लोग आए हैं और किसलिए आए हैं | ये लोग कोंडागांव में भी आए हैं उसके बाद जगदलपुर, सुकमा, दंतेवाड़ा, में भी पहुँच गए हैं | हमें भय लग रहा है | यहाँ पर वे लोग अंग्रेजों के बस्तर प्रवेश की बातें कर रही हैं और अपना भय भी प्रकट कर रही हैं | आगे वे कहती हैं कि हमें भय लग रहा है वे लोग किसलिए आए हैं ?
तब जवाब में सामने वाले कहते हैं कि हमें भी इस बात की कोई जानकारी नहीं हैं मोटियारिन लड़कियों | अच्छा चलें तो चेलिकों के पास यानि घोटुल गुड़ी के युवाओं की बात वे कर रही हैं, गाँव के माझी मुखिया के पास चलें, देवान के पास चलें, सिरहा के पास चलें और पता करें कि क्या हो रहा है, क्या करना है, इस बात पर सलाह मशवरा कर उनकी राय लें | जब वे सलाह मशवरा कर लेती हैं और चेलिकों, माझी, मुखिया, देवान आदि से चर्चाकर उनकी बातें सुनती हैं तब वे स्वयं को आश्वश्त करते हुए खुद को सांत्वना देते हुए जब वे गाती हैं तो उनके अन्दर का भय कुछ कम होता है और वे कहती हैं कि——
ईर्ष्या दुश्मनी कुछ भी नहीं
मार पीट लड़ाई-झगड़ा नहीं
प्यार ममता से रहें माता
तुम्हारी जय-जय गाएँ माता
भारत माता-भारत माता
तुम्हारी जय-जय गाएँ माता
देश के लिए जीना सीखें
देश के लिए मरना सीखें
देश की सेवा करें माता
तुम्हारी जय-जय गाएँ माता
भारत माता- भारत माता
तुम्हारी जय-जय गाएँ माता
भारत माता- भारत माता ||
हल्बी से अनुवाद
इस तरह भारत माता के प्रति, देश सेवा और देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत इन गीतों को सुनकर ,पढ़कर ज्ञात होता है कि बस्तर क्षेत्र जिसे आज भी लोग पिछड़ा और माओवाद के नाम से जानते हैं या चिन्हित करते हैं, वह भी अछूता नहीं रहा स्वतंत्रता की लड़ाई में, जिसमें हमारे बहुत सारे देशभक्त शहीद हुए थे | छत्तीसगढ़ का वह पिछड़ा कहलाने वाला क्षेत्र बस्तर के वीरों ने भी स्वतंत्रता के संघर्ष में बराबर का साथ निभाकर देश सेवा के लिए संघर्ष करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग तो किया ही, साथ ही अपने गीतों के माध्यम से लोगों में जोश और जज्बा का संचार करके वे अपने देश के प्रति आस्थावान बने रहे | स्वतंत्रता के पचहत्तरवीं वर्ष में आज हम उन वीरों को और उनमें देशभक्ति का जज्बा जगाने वाले गायक-गायिकाओं को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से साथ निभाने वाले देशभक्तों को नमन करते हैं |
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