पाषाणकालीन चित्रकारों के पास नीला रंग भी था

मध्यप्रदेश के भोपाल के पास स्थित भीमबेटका शैलाश्रय और होशंगाबाद में स्थित आदमगढ़ की पहाड़ियां पुरापाषाण और नवपाषाण युगीन पुरातात्विक स्थल हैं। ये शैलाश्रय उस युग के मनुष्यों द्वारा बनाए गए शैलचित्रों (रॉक पेंटिंग्स) के लिए प्रसिद्ध हैं और पुरातात्विक महत्व रखते हैं। इनमें तरह-तरह की आकृतियों में बने शैलचित्र मिलते हैं: शिकार करते मनुष्यों के, उस समय की वनस्पतियों के, जीव-जंतुओं आदि के चित्र मिलते हैं। लेकिन ये चित्र गेरूआ या/और सफेद रंग से ही बने हैं। और लगभग यही बात प्रागैतिहासिक काल के सभी शैलाश्रयों में दिखती हैं: विविध तरह की आकृतियों में बनाए गए शैलचित्रों में बस काले, लाल-गेरूए, सफेद और हल्के पीले रंग का ही इस्तेमाल दिखता है। ऐसा लगता था कि इस समय के चित्रकारों के पास नीला रंग था ही नहीं, इसलिए वह चित्रों से भी गायब ही रहा। नीले रंग के इस्तेमाल का पहला प्रमाण आज से 5000 साल पहले की कृतियों में मिलता है, जो मिस्र में नीले रंग के आविष्कार की बात कहता है।पुरातत्वविदों को प्राचीन कृतियों में नीले रंग के नदारद होने का एक कारण यह लगता है कि गेरूए और काले रंग के विपरीत, नीला रंग प्रकृति में सीधे तौर पर नहीं मिलता। हालांकि कुछ वनस्पतियों से इसे हासिल किया जा सकता है लेकिन इसे हासिल करने के लिए एक लंबी प्रक्रिया करनी पड़ती है, और फिर इनसे हासिल रंग समय के साथ उड़ भी जाते हैं। या फिर अफगानिस्तान की खदानों में मौजूद लाजवर्द (Lapis Lazuli) पत्थरों से नीला रंग हासिल किया जा सकता था, लेकिन ऐसा लगता है कि उस समय के लोगों की इस तक पहुंच नहीं थी। लेकिन हाल ही में एंटिक्विटी में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि नीले रंग का इस्तेमाल अनुमान से कहीं पहले होने लगा था: लगभग 13,000 साल पहले मध्य जर्मनी के कलाकार नीला रंग अपनी कृतियों में भर रहे थे। दरअसल 1970 में मध्य जर्मनी के मुलहाइम-डाइटशाइम नामक खुदाई स्थल (जो 13,000 पहले शिकारी-संग्राहक समूह का निवास स्थल था) से लगभग हथेली जैसी आकृति का और उसी जितना बड़ा पत्थर मिला था। इस पत्थर को देखकर पुरातत्वविदों ने इसे दीये के रूप में पहचाना था। उसके बाद से यह संग्रहालय में रखा रहा। कुछ समय पहले जब शोधकर्ता इस पत्थर की दोबारा जांच-पड़ताल कर रहे थे, तब उन्हें इसकी सतह पर नीले रंग के छोटे-छोटे से धब्बे दिखाई दिए। पहले तो लगा कि शायद संग्रहालय के रख-रखाव या सफाई-पुताई के दौरान इस पत्थर में ये धब्बे लग गए हैं। लेकिन जब इन धब्बों की एक्स-रे फ्लोरेसेंस और इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी स्कैनिंग की तो पता चला कि यह कोई आज की रंगाई-पुताई के रंग के धब्बे नहीं हैं बल्कि ये धब्बे तो एज़ुराइट के रंग हैं, जिससे उन्होंने इस पत्थर पर संभवत: रंग-बिंरगी धारियां बनाई थी। गौरतलब है कि एज़ुराइट एक दुर्लभ लेकिन प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला नीला खनिज है जो जर्मनी में कई स्थानों पर पाया जाता है।प्रागैतिहासिक मानव बस्तियों के पास से मिले एक साधारण पत्थर पर नीले रंग की उपस्थिति से पता चलता है कि वहां के लोग नीले रंग से वाकिफ थे और इस रंगत के लिए एज़ुराइट का इस्तेमाल करते थे। लेकिन हो सकता है किसी कारणवश या सांस्कृतिक पसंद के कारण उन्होंने इसका इस्तेमाल शैलाश्रय के चित्रों में नहीं किया। शायद वे नीले रंग का इस्तेमाल लकड़ी, बर्तन या कपड़ों पर चित्रकारी या शरीर पर टैटू के लिए करते होंगे। और ऐसी चीज़ें समय के साथ नष्ट हो जाती हैं, इसलिए नीले रंग के प्रमाण नहीं मिलते हों।और, ऐसा लगता है कि सिर्फ जर्मनी में पुरापाषाणकालीन लोग ही नीले रंग का इस्तेमाल नहीं करते थे, बल्कि उससे काफी पहले के जॉर्जियावासी भी करते थे। दरअसल जॉर्जिया के एक खुदाई स्थान से प्राप्त 33,000 साल पुराने सिल-बट्टे के पत्थर पर नीला रंग देने वाले पौधे (नील का पौधा, Isatis tinctoria) के अवशेष मिले हैं।गौरतलब है कि नील के पौधे को खाया नहीं जाता है। चूंकि इससे किसी तरह का पोषण नहीं मिलता है इसलिए सिल-बट्टे के पत्थर पर इसे पीसने के प्रमाण मिलना इसके भोजन के इतर किसी उपयोग की ओर इशारा करता है। हम यह भी जानते हैं कि इस पौधे से नीला रंग बनाने के लिए सबसे पहले इसकी पत्तियों को कूटना-पीसना पड़ता है। और सिल-बट्टे पर नील के अवशेष दर्शाते हैं कि जॉर्जियावासियों ने भले ही नीले रंग का इस्तेमाल किया हो या नहीं, लेकिन वे इसे हासिल करने की कोशिश तो कर ही रहे थे।बहरहाल ऐसे सिर्फ दो प्रमाण मिले हैं: एक रंग के इस्तेमाल के और दूसरा इसे बनाने के प्रयास के। व्यापक इस्तेमाल की पुष्टि के लिए कई और प्रमाण खोजने की ज़रूरत है। हालांकि कुछ पुरातन चीज़ों के साथ समस्या यह है कि वे समय के साथ नष्ट हो जाती हैं, ऐसे में व्यापक इस्तेमाल के बावजूद उनके उतने प्रमाण नहीं मिलते। एक बात यह है कि अब तक वैज्ञानिक मानकर चल रहे थे कि पाषाणकालीन लोगों के पास नीला रंग था ही नहीं। यह शोध अब उनके शैलचित्रों या उनकी अन्य कलाकृतियों में नया रंग तलाशने की प्रेरणा देगा। (स्रोत फीचर्स)




