ईद-उल-अज़हा: क़ुरबानी का त्योहार और इसकी सामाजिक व समकालीन उपयोगिता




ईद-उल-अज़हा, जिसे ईद-ए-क़ुर्बान भी कहा जाता है, इस्लामी कैलेंडर का एक बेहद महत्वपूर्ण और पाक अवसर है। यह न केवल हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की आज्ञा पालन और वफ़ादारी की याद दिलाता है, बल्कि इसमें त्याग, दान शीलता, सामाजिक सहानुभूति, और रूहानी तर्बियत का एक मुकम्मल पैग़ाम भी छुपा होता है। यह त्योहार हमें सिर्फ़ जानवर ज़बह करने का नहीं बल्कि ज़िन्दगी के हर पहलू में क़ुर्बानी, सब्र और ज़िम्मेदारी अपनाने की तालीम देता है।
- क़ुर्बानी की असल रूह
हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) का अमल हमें यह सिखाता है कि एक मोमिन इंसान को अपनी सबसे अज़ीज़ चीज़ भी अल्लाह की राह में देने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह ईमानदारी और फ़रमाँबरदारी की बेहतरीन मिसाल है, जो न सिर्फ़ हमारी ज़ाती ज़िन्दगी बल्कि पूरे समाज पर असर डालती है।
“अल्लाह तक न उनका गोश्त पहुँचता है और न खून, बल्कि तुम्हारा तक़्वा पहुँचता है।”
(सूरह अल-हज्ज: 37)
- सामाजिक समानता और सहानुभूति
ईद-उल-अज़हा हमें यह एहसास दिलाती है कि ख़ुशी और नेमतों पर हर इंसान का हक़ है — चाहे वो अमीर हो या ग़रीब। जब क़ुर्बानी का गोश्त तीन हिस्सों में तक़सीम किया जाता है — तो यह सिर्फ़ एक रस्म नहीं बल्कि सामाजिक इंसाफ़ और भाईचारे की एक ज़िंदा मिसाल होती है।
- पर्यावरणीय पहलू
आज के दौर में क़ुर्बानी के मौक़े पर माहौलियाती हिफ़ाज़त एक अहम मुद्दा बन चुका है।
जानवरों के ज़बह के बाद उनका फ़ुज़ला, खून, खाल वग़ैरह अगर सही तरीक़े से नहीं निपटाया गया, तो यह माहौल को गंदा और नुक़सान पहुँचा सकता है।
इस्लाम हमें सिखाता है:
“सफ़ाई आधा ईमान है।”
इसलिए ज़रूरी है कि हम क़ुर्बानी करते हुए ऐसी जगहों और तरीक़ों को अपनाएँ जहाँ शरई उसूलों का भी ख़याल रखा जाए और माहौल की भी हिफ़ाज़त हो।
- क़ुर्बानी में अनुशासन
ईद-उल-अज़हा के दिन लाखों जानवरों की क़ुर्बानी एक बड़ा और मुनज़्ज़म अमल होता है। इसमें नज़्म-ओ-ज़ब्त, वक़्त की पाबंदी, सफ़ाई का ख़्याल, और दूसरों के जज़्बात का एहतेराम शामिल होना चाहिए।
जानवर का सही चुनाव,
ज़बह का तरीका,
गोश्त की तकसीम —
सब कुछ शरीअत के मुताबिक़ हो।
बिना जानकारी क़ुर्बानी, गंदगी फैलाना, या दिखावा करना इस इबादत की रूह के ख़िलाफ़ है।
- आधुनिक दौर में क़ुर्बानी का मतलब
आज के दौर में क़ुर्बानी सिर्फ़ जानवर के ज़बह तक महदूद नहीं रहनी चाहिए। हमें इस रूह को अपनी ज़िन्दगी में भी अपनाना होगा:
वक़्त की क़ुर्बानी दूसरों के लिए,
माल की क़ुर्बानी ज़रूरतमंदों के लिए,
अना की क़ुर्बानी रिश्तों की भलाई के लिए,
और ख्वाहिशों की क़ुर्बानी अल्लाह की रज़ा के लिए।
अगर हम सिर्फ़ एक दिन गोश्त बाँट कर पूरे साल बे-परवाह रहें, तो क़ुर्बानी का असल मक़सद खो जाएगा।
ईद-उल-अज़हा हमें सिखाती है कि असली क़ुर्बानी वही है जो इख़लास, नियत, और इंसानियत की भलाई के साथ हो। यह एक ऐसा मौका है जब हम न सिर्फ़ अल्लाह की रज़ा हासिल करते हैं, बल्कि समाज में सहानुभूति, साफ़-सफ़ाई, अनुशासन, और पर्यावरण के प्रति जागरूकता भी फैलाते हैं।
अगर हम इस त्योहार की असल रूह को समझकर उस पर अमल करें, तो यह हमारे समाज में त्याग, बराबरी, भाईचारा, और शऊर की बेदारी का सबब बन सकता है।
नुजहत सुहैल पाशा
JIH women’s wing
मीडिया इंचार्ज रायपुर छत्तीसगढ़